दो दायरो के बीच का फासला हे ये जिंदगी ।
हमारे अपने अपने होने से रहे ।
भीड बढती ही गयी ।
इन्ही दो दायरो में भी कही अन्गीनात मोड आये ,
आते रहेंगे ।
ये सभी,एहसास हें जिने का,मजा भी हे इन ,
दायरो के बीच फसे रहने का ।
जुलम तो सिर्फ वक़्त करता है ।
उसे दवा भी ,
जिस्म तो वही ठिकाना है ।
जहा वो समाया रहता है ।
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आज वो छुट रही ही राहे,
जिन्हे कदम कदम चाहा ,कूछ नयी समा रही है ,
जुदा तो सब होना है ।
हमसे हमारी परछाई भी ।
.............................. अभिजित २०१२
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