जो सोचाथा वही सब हो रहा है
फिर कदम क्यों खामोश खड़े है ।
रास्ता मंजिल की तरफ का तो सोचा ही नहीं था ।
मंजिले तो पड़ाव होती है।
ऐसे एक राह चलते एक राही ने मुझसे कहा था।
मेरे साथ चलो तुम्हे सूरज पर लेकर चलता हु ।
मेने उसे पागल समझा और चल पड़ा ,
अब समझा वो यहाँ तक आकर लौट चूका था ।
उसे मंजिल मिल गयी,
और मुझे ख़ामोशी ।
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अभिजित १ ५ जून २ ० १ ३
पुरानी किताबे खोलने का एक डर हमेशा दिल में लगा रहता है ।
कही पन्ने बिखर ना जाये ।
वैसे ही कुछ छोटी छोटी यादो की किताबों का है ।
वैसे तो वो बिखरे हुए ही है ।
डर ये है ,
भूले हुए गिले फिरसे याद न आजाये ।
------------------------------अभिजित १ ३ जून २ ० १ ३
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